
कटनी से सौरभ श्रीवास्तव की रिपोर्ट
कटनी। कटनी जिले के जिला आयुष विभाग द्वारा देवारण्य योजना के अन्तर्गत एक जिला एक औषधीय पौधों (अश्वगंधा) की खेती से संबंधित एक दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर लोगो को प्रशिक्षण दिया गया। जिसमें जिला आयुष अधिकारी, मास्टर ट्रेनर, हीरामणि हल्दकर आदि मौजूद रहे।
*वंदना सिंह ने बताया कि* अश्वगंधा का जीवन चक्र – अश्वगंधा एक बहुवर्षीय पौधा है। परन्तु इसकी खोती 6-7 माह की फसल के रूप में की जाती है। मृदा एवं जलवायु – यह एक जड़ दार फसल है। इसलिए रेतीली दोमट मिट्टियां तथा हल्की लाल मिट्टियां इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। प्रायः यह देखा गया है कि भारी मृदाओं में पौधे तो काफी बड़े-बड़े हो जाते हैं (हर्वेज बढ़ जाती है) ती है) परन्तु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही मिलता है अश्वगंधा शुष्क एवं समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है इसकी सही बढ़त के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होती है। अश्वगंधा की प्रमुख उन्नतीशील किस्में जवाहर अश्वगंधा- 134, जवाहर अश्वगंधा 20 तथा डब्ल्यूएस-90, डब्ल्यूएस-100 आदि। बिजाई से पूर्व खेत की तैयारी – लगभग 1-2 ट्राली गोबर खाद प्रति एकड़ की दर से जलकर खेत को जुलाई-अगस्त माह में एक बार जुताई करके तैयार कर लेना चाहिए।
बुचाई – बुवाई का सर्वाधिक उपयुक्त समय अगस्त-सितम्बर है। अश्वगंधा की बुवाई 2 प्रकार से की जाती है।
1. सीधी खोत खोत में बुवाई।
2. नर्सरी बनाकर पौधों को खोत में ट्रांसप्लांट करना। सीधी खेत में बुवाई – ज्यादातर किसान छिठकवा विधि का उपयोग करते हैं। क्योंकि अश्वगंधा के बीज काफी हल्के होते हैं अतः अश्वगंधा के बीज में पाँच गुना बालू रेत मिलाक बालू मिश्रित बीजों को खोत में छिड़क दिया जाता है तथा ऊपर से पाटा दे दिया जाता है।
* एक एकड़ के लिए 5 किलोग्राम अश्वगंधा बीज पर्याप्त होता है।
* यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज जमीन से अधिक गहरा (3 से 4 सेमी से अधिक गहरा नहीं) न जाए। नर्सरी बनाकर खेत में पौधे लगाना – इस विधि में सर्वप्रथम रेज्ड नर्सरी बैड्स बनाए जाते हैं तद् उपरांत इन बेड्स में 4 किग्रा / एकड़ की दर से
अश्वगंधा बीज डाला जाता है तथा 6 सप्ताह के उपरांत जब पौधे लगभग 5-6 सेमी ऊँचे हो जाएं तब इन्हें खोत में 3X04 सेमी की दूरी पर ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है।
* विभिन्न अनुसंधानों के परिणाम दर्शाते हैं कि रोपण विधि के बजाए अश्वगंधा की सीधी बुवाई करना अधिक उपयुक्त होता है।
बीज उपचार – अश्वगंधा मतें डाईबैंक अथवा सीड रॉटिंग बीमारियां सामान्यतः पायी जाती है। जिसके लिए बीजों को डायथेन एम45 से 3 ग्राम प्रति, किग्रा की दर से उपचारित करना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण: जब पौधे लगभग 40-45 दिन के हो जाएं तब खेत की हाथ से निंदाई कर दी जानी चाहिए। खाद की आवश्यकता नाइट्रोजन-8 किग्रा, सल्फर-24 किग्रा, पोटाश-16 किग्रा प्रति एकड़ अनुशंसित मात्रा है। इन अवयवों की पूर्ति हेतु 2 टन कम्पोस्ट खाद अथवा वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग पर्याप्त होता है। सिंचाई व्यवस्था – इसे मात्र दो सिंचाईयों की आवश्यकता होती है एक उगने के 30-35 दिन के पश्चात तथा दूसरी उससे 60-70 दिन के उपरांत । फसल के प्रमुख रोग – जड़ सड़न, पौधे गलन अथवा झुलसा रोग प्रमुख हैं। इसके लिए बीज करके रोगों को नियंत्रित किया जा सकता है।
फसल के प्रमुख कीट – माहू के उपचार हेतु मैटासिस्टॉक्स 1.50 मिली/लीटर पानी में छिड़काव करने से नियंत्रित किया जा सकता है।
फसल का पकना तथा जड़ों की खुदाई-बुवाई के लगभग 5-6 माह उपरांत (प्रायः फरवरी माह की दिनांक 15 के करीब) जब अश्वगंधा की पत्तियां पीली पड़ने लगे तथा इनके ऊपर आए फल (बोर) पकने लगे अथवा फलों के ऊपर की परत सूखाने लगे तो अश्वगंधा के पौधे को उखाड़ लिया जाना चाहिए। उखाड़ने के पूर्व खेत में एक सिंचाई दें। * उखाड़ने के तत्काल बाद जड़ों को पौधे (तने) से अलग कर दिया जाना चाहिए तथा इनके साथ लगी रेत, मिट्टी को साफ कर लेना चाहिए। काटने के उपरांत इन्हें लगभग 10 दिनों तक छाया वाले स्थान पर सुखाया जाना चाहिए तथा जब ये जड़ें तोड़ने पर रवट की आवाज से टूटने लगे तो समझ लिया जाना चाहिए कि ये बिक्री के लिए तैयार है। उपज : 1 से 1.5 क्विंटल जड़ें प्रति एकड़, 25 किग्रा बीज प्रति एकड़।।।।